देशभर में अभिभावक चीख रहे हैं, लेकिन स्कूल बेहिचक फीस बढ़ा रहे हैं! दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला, ढीले कानून और सरकार की खामोशी क्यों नहीं थम रही ये लूट? क्या आपके बच्चे की पढ़ाई अब सिर्फ अमीरों का हक़ बन चुकी है? पढ़ें वो खुलासा जो हर पेरेंट को जानना चाहिए।
भारत में प्राइवेट स्कूलों द्वारा की जा रही मनमानी फीस वृद्धि (Fee Hike) लंबे समय से चर्चा और विवाद का विषय रही है। कई राज्य सरकारों ने इस पर नियंत्रण के लिए कानून तो बनाए हैं, लेकिन इनका प्रभाव और कार्यान्वयन अब भी सवालों के घेरे में है। दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों में अभिभावकों ने स्कूलों की बेलगाम फीस वृद्धि के खिलाफ आवाज उठाई है।
दिल्ली में फीस वृद्धि के नियम और कानून
दिल्ली में निजी स्कूलों की फीस वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए “दिल्ली स्कूल शिक्षा अधिनियम और नियम, 1973 (DSEAR)” लागू है। इस कानून के तहत वे निजी स्कूल जो सरकारी जमीन पर संचालित होते हैं, उन्हें हर वर्ष अप्रैल माह में फीस वृद्धि का प्रस्ताव शिक्षा निदेशालय (Directorate of Education – DoE) के समक्ष ऑनलाइन प्रस्तुत करना अनिवार्य होता है। शिक्षा निदेशालय इस प्रस्ताव की समीक्षा करता है और बिना उसकी अनुमति के कोई भी स्कूल फीस नहीं बढ़ा सकता।
यह व्यवस्था छात्रों और अभिभावकों को फीस वृद्धि से सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से बनाई गई थी। हालांकि, इस नियम का पालन कितनी ईमानदारी से होता है, इस पर लगातार सवाल उठते रहे हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट का 2018 का फैसला और इसके असर
2018 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि निजी स्कूल यदि मुनाफा नहीं कमा रहे हैं, तो उन्हें DoE से पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। इस फैसले के बाद, कई स्कूलों को फीस वृद्धि में ढील मिल गई और सरकार की निगरानी की प्रक्रिया काफी हद तक कमजोर हो गई।
इस निर्णय ने प्राइवेट स्कूलों को “गैर-लाभकारी संस्थान” के रूप में दिखाकर फीस बढ़ाने का रास्ता खोल दिया, जिससे अभिभावकों में असंतोष बढ़ा।
अन्य राज्यों की पहल और कानून
देश के अन्य राज्यों ने भी प्राइवेट स्कूलों की फीस वृद्धि पर लगाम कसने के प्रयास किए हैं। पश्चिम बंगाल सरकार एक नया कानून लाने की योजना बना रही है, जो फीस में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करेगा। इस प्रस्तावित कानून के तहत राज्य सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती है कि स्कूल हर वर्ष मनमाने ढंग से फीस न बढ़ा सकें।
इसके अलावा महाराष्ट्र, तमिलनाडु और गुजरात जैसे राज्यों में भी फीस रेगुलेशन एक्ट लागू किए गए हैं। हालांकि, इन कानूनों के बावजूद कई जगहों पर स्कूल प्रशासन loopholes का सहारा लेकर नियमों से बच निकलते हैं।
अभिभावकों का विरोध और आंदोलन
अभिभावक संगठन देशभर में निजी स्कूलों की फीस वृद्धि के खिलाफ मुखर हो चुके हैं। दिल्ली में कई बार अभिभावकों ने प्रदर्शन किए और सरकार से सख्त कानून बनाने की मांग की।
एक लोकप्रिय विरोध प्रदर्शन में अभिभावक “STOP FEE HIKES, WE ARE NOT ATMs – MAKE EDUCATION AFFORDABLE” जैसे नारे लगाते हुए सड़कों पर उतरे। इस तरह के प्रदर्शन यह दर्शाते हैं कि फीस वृद्धि का मुद्दा केवल आर्थिक नहीं बल्कि सामाजिक चिंता का विषय भी बन चुका है।
फीस नियंत्रण के नियमों का प्रभावी कार्यान्वयन जरूरी
भले ही फीस रेगुलेशन कानून कागजों पर मौजूद हैं, लेकिन उनके प्रभावी कार्यान्वयन की कमी के कारण स्कूलों पर इनका असर सीमित ही रहा है। कई स्कूल अपनी बैलेंस शीट को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि वह गैर-लाभकारी दिखे, जबकि असल में अभिभावकों पर आर्थिक बोझ बढ़ता जाता है।
जब तक सरकार द्वारा बनाए गए नियमों पर कड़ाई से अमल नहीं होता और निरीक्षण की एक पारदर्शी प्रणाली नहीं बनती, तब तक फीस वृद्धि पर अंकुश लगाना संभव नहीं है।
क्या किया जा सकता है?
अभिभावकों को चाहिए कि वे फीस वृद्धि की प्रक्रिया में पारदर्शिता की मांग करें और किसी भी प्रकार की मनमानी के खिलाफ शिक्षा निदेशालय या राज्य शुल्क नियामक समिति में शिकायत दर्ज कराएं। इसके अलावा सामाजिक और कानूनी माध्यमों से जागरूकता फैलाकर दबाव बनाना भी आवश्यक है।
नए कानूनों के साथ-साथ अभिभावकों की सक्रिय भागीदारी ही इस समस्या का दीर्घकालिक समाधान हो सकती है।