क्या ट्रंप महज़ टैरिफ़ को टैक्स के रूप में नहीं बल्कि एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं? और भारत इसका किस तरह जवाब दे सकता है?
इसी मुद्दे पर बातचीत के लिए हमारे साथ हैं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ अजय श्रीवास्तव। वह भारत के जाने-माने ट्रेड एक्सपर्ट और Global Trade Research Initiative (GTRI) के सह-संस्थापक हैं। भारतीय वाणिज्यिक सेवा (Indian Trade Service) में लंबा अनुभव रखने के बाद उन्होंने इस स्वतंत्र थिंक-टैंक की नींव रखी।
अजय श्रीवास्तव का कहना है कि भारत के पास अमेरिका पर दबाव बनाने के कम से कम दो बड़े विकल्प मौजूद हैं, जिन्हें थोड़ा और मज़बूत करने की ज़रूरत है।
पहला, भारत में करीब 2000 से अधिक अमेरिकी कंपनियाँ सक्रिय हैं, जो हर साल यहाँ से लगभग 80 बिलियन डॉलर का मुनाफ़ा कमाकर ले जाती हैं। वहीं, अमेरिका अक्सर व्यापार घाटे का हवाला देता है—करीब 45 बिलियन डॉलर—और भारत पर ऊँचे टैरिफ और नॉन-टैरिफ बैरियर लगाने का आरोप लगाता है। श्रीवास्तव का मानना है कि अगर भारत इन कंपनियों पर अतिरिक्त टैक्स या कुछ सीमाएँ लागू करे, तो अमेरिकी प्रशासन पर दबाव बनेगा। ख़ासतौर पर टेक कंपनियों पर पाबंदी अमेरिका के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती है।
दूसरा, भारत का डिजिटल और डेटा इकोसिस्टम। आज के दौर में डेटा ही सबसे कीमती संसाधन है, और अमेरिका की तमाम टेक कंपनियाँ अपने टूल्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इंजन को ट्रेन करने के लिए भारतीय यूज़र डेटा पर भारी निर्भर हैं। चीन पहले ही अपने डिजिटल स्पेस को अमेरिकी कंपनियों से पूरी तरह बंद कर चुका है, लेकिन भारत ने अब तक उन्हें बिना किसी रोकटोक के काम करने दिया है—चाहे वह Google, YouTube, Facebook, Instagram हो या ChatGPT। अगर भारत चाहे तो इस डेटा एक्सेस पर कुछ सीमाएँ लगाकर अमेरिका को सीधे तौर पर झटका दे सकता है।
श्रीवास्तव के अनुसार, ये दो सबसे बड़ी “कमज़ोर नसें” अमेरिका की भारत के हाथ में हैं—भारत में उनकी भारी-भरकम कमाई करने वाली कंपनियाँ और हमारे यहाँ से मिलने वाला विशाल डेटा।
साथ ही, यह भी साफ है कि ट्रंप की टैरिफ़ नीति का असर सिर्फ भारत पर ही नहीं बल्कि अमेरिकी जनता पर भी पड़ता है। ऊँचे शुल्क के कारण सामान महँगा होता है और महँगाई का बोझ सीधे अमेरिकी उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ता है।

 
			 
                                 
                              
		 
		 
		 
		