किसान भाइयों के लिए धान की खेती सिर्फ आजीविका नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति का हिस्सा है। लेकिन धान की खेती में मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पर्यावरण के लिए चुनौती है। अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (IRRI) के दक्षिण एशिया क्षेत्रीय केंद्र (आईसार्क) के निदेशक डॉ. सुधांशु सिंह और उनकी वैज्ञानिक टीम इस चुनौती से निपटने के लिए शानदार काम कर रही है। हाल ही में, उन्होंने माननीय मंत्री जी को वाराणसी में आईसार्क के ग्रीनहाउस गैस (GHG) प्लॉट्स दिखाए, जहां धान की खेती से निकलने वाले उत्सर्जन को मापने और कम करने पर शोध हो रहा है। इसके साथ ही, पुनर्योजी कृषि (रिजेनेरेटिव एग्रीकल्चर) पर किए जा रहे अनुसंधान का भी निरीक्षण किया गया। यह शोध हमारे किसानों और पर्यावरण दोनों के लिए वरदान साबित होगा।
ग्रीनहाउस गैस, धान की खेती की चुनौती
धान की खेती में पानी भरे खेतों से मीथेन गैस निकलती है, जो ग्रीनहाउस गैसों का एक बड़ा हिस्सा है। यह गैस पर्यावरण को गर्म करती है और जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देती है। आईसार्क के वैज्ञानिक, डॉ. सुधांशु सिंह के नेतृत्व में, ग्रीनहाउस गैसों को मापने के लिए आधुनिक उपकरणों का उपयोग कर रहे हैं। उनके शोध से पता चला है कि वैकल्पिक गीला-सूखा (Alternate Wetting and Drying – AWD) जैसी तकनीकें मीथेन उत्सर्जन को 20-48% तक कम कर सकती हैं। इस तकनीक में खेत को लगातार पानी में डुबोने की बजाय, समय-समय पर सूखने दिया जाता है। इससे पानी की बचत होती है और पर्यावरण को भी नुकसान कम पहुंचता है। हमारे किसान इस तकनीक को अपनाकर खेती को हरा-भरा और टिकाऊ बना सकते हैं।
पुनर्योजी कृषि
पुनर्योजी कृषि (Regenerative Agriculture) एक ऐसी विधि है, जो मिट्टी की सेहत को बेहतर बनाती है, कार्बन को मिट्टी में जमा करती है, और फसल की पैदावार बढ़ाती है। आईसार्क में इस पर गहन शोध हो रहा है, जिसका निरीक्षण हाल ही में मंत्री जी ने किया। इस विधि में बिना जुताई (नो-टिल), जैविक खाद, और मिश्रित फसल प्रणाली जैसे तरीकों का उपयोग होता है। डॉ. सुधांशु सिंह ने बताया कि पुनर्योजी कृषि से न सिर्फ ग्रीनहाउस गैसें कम होती हैं, बल्कि मिट्टी में पोषक तत्व बढ़ते हैं, जिससे लंबे समय तक खेती टिकाऊ रहती है। यह हमारे छोटे किसानों के लिए कम लागत में ज्यादा मुनाफे का रास्ता है।
पुराने समय से जैविक खाद और देसी तरीकों का इस्तेमाल होता रहा है। पुनर्योजी कृषि में इन नुस्खों को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़ा जा रहा है। उदाहरण के लिए, धान की खेती में अजोला और नीली-हरी शैवाल (Blue-Green Algae) का उपयोग नाइट्रोजन की पूर्ति करता है और मीथेन उत्सर्जन को कम करता है। गोबर की सड़ी हुई खाद और वर्मीकम्पोस्ट मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। डायरेक्ट सीडेड राइस (DSR) तकनीक, जिसमें धान को सीधे बीज बोकर उगाया जाता है, पानी और ग्रीनहाउस गैसों की बचत करता है। ये देसी नुस्खे हमारे किसानों को पर्यावरण के साथ-साथ अपनी जेब की भी रक्षा करने में मदद करते हैं।