Education Department Action : राजस्थान में सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था को लेकर चौंकाने वाली सच्चाई सामने आई है। राज्य के कई जिलों में ऐसे सरकारी स्कूल चल रहे हैं, जहां छात्रों की संख्या एक से दस के बीच है, लेकिन वहां शिक्षकों की तैनाती कहीं छात्रों के बराबर या उससे भी अधिक है। इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि इन स्कूलों पर हर साल सरकारी खजाने से लाखों-करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं, जबकि लाभ उठाने वाले बच्चों की संख्या नाममात्र है।
झुंझुनूं के एक स्कूल में सिर्फ एक छात्र और छह शिक्षक
शिक्षा विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक, झुंझुनूं जिले के ‘राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय बुधराम की ढाणी’ में केवल एक छात्र पंजीकृत है, जबकि वहां छह शिक्षक कार्यरत हैं। इस एक छात्र पर सरकार हर साल लगभग ₹80 लाख खर्च कर रही है। यह खर्चा केवल शिक्षकों के वेतन और स्कूल संचालन पर आधारित है। यह आंकड़ा दर्शाता है कि संसाधनों का उपयोग कितना असंतुलित और असंगत है।
श्रीगंगानगर में दो छात्र और दो शिक्षक
श्रीकरणपुर ब्लॉक के गांव 14 एफ स्थित प्राथमिक विद्यालय में दो छात्रों का नामांकन है, लेकिन वहां दो पूर्णकालिक शिक्षक तैनात हैं। इससे पहले इस स्कूल में सिर्फ एक ही छात्र पढ़ता था। यहां भी सरकार सालाना करीब ₹10 से ₹15 लाख खर्च कर रही है। शिक्षकों का वेतन इस खर्च का बड़ा हिस्सा है।
नागौर के 10 स्कूलों में छात्रों की संख्या एक या शून्य
नागौर जिले के दस सरकारी स्कूलों में नामांकन या तो शून्य है या केवल एक छात्र का है। इन स्कूलों में कुल 19 शिक्षक कार्यरत हैं, जिनका औसत मासिक वेतन 12 से 13 लाख रुपये है। इनमें से एक स्कूल ऐसा है जहां कोई छात्र नहीं है, लेकिन फिर भी वहां एक शिक्षक की तैनाती है। बाकी नौ स्कूलों में दो-दो शिक्षक कार्यरत हैं।
झुंझुनूं में 19 स्कूल, छात्रों की संख्या दस से भी कम
झुंझुनूं जिले में ऐसे 19 सरकारी स्कूल हैं, जहां छात्रों की संख्या 10 से कम है। चौंकाने वाली बात यह है कि इन्हीं स्कूलों के आसपास निजी स्कूलों में नामांकन अच्छा खासा है। निजी स्कूलों में शिक्षक ₹5,000 से ₹10,000 प्रति माह पर काम कर रहे हैं, जबकि सरकारी स्कूलों में ₹50,000 से ₹1 लाख तक वेतन मिलता है। इसके बावजूद सरकारी स्कूलों की हालत खस्ता बनी हुई है।
शिक्षकों की संख्या अधिक, प्रशासनिक निगरानी कमजोर
शिक्षा विभाग में आधे से अधिक अधिकारियों के पद खाली हैं, जिससे स्कूलों की मोनिटरिंग और निरीक्षण प्रभावी नहीं हो पा रहा है। इसके अलावा शिक्षकों को गैर-शैक्षणिक कार्यों में भी लगाया जाता है, जिससे उनका ध्यान पढ़ाई से हट जाता है। कई जगह शिक्षकों का स्थानीय समुदाय से जुड़ाव कमजोर है, जो स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति और अभिभावकों के भरोसे को प्रभावित करता है।
शिक्षा विशेषज्ञों की राय: सरकार को करना चाहिए मंथन
राजस्थान शिक्षक संघ (शेखावत) के प्रदेश महामंत्री उपेन्द्र शर्मा ने कहा कि राज्य सरकार को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया कि:
- ऐसे स्कूलों का पुनर्गठन किया जाए जहां छात्र संख्या अत्यंत कम है।
- शिक्षकों की तैनाती और संसाधनों के उपयोग को बेहतर किया जाए।
- शिक्षा विभाग में रिक्त पदों को भरा जाए ताकि निगरानी प्रणाली मजबूत हो।
- शिक्षकों की समाज से भागीदारी और संवाद को बढ़ावा मिले।
शिक्षा में असंतुलन का असर समाज पर
सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होना केवल एक प्रशासनिक विफलता नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक चेतावनी भी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अभिभावकों का सरकारी शिक्षा व्यवस्था से भरोसा उठ चुका है। जब तक सरकार शिक्षकों की जवाबदेही तय नहीं करेगी, और शिक्षा व्यवस्था में पारदर्शिता और गुणवत्ता नहीं लाई जाएगी, तब तक इस स्थिति में सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती।